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जुड़ ना पाई दुनिया के झमेले में




                       **पगली**  


पगली रही अकेली,  

जुड़ने की चाह लिए,  

बिखरती रही पल-पल,  

खुद को समेटने की आस लिए।  


अपने ही बसेरे में,  

पर किसी से जुड़ न पाई।  


दुनिया के झमेले में,  

तट पर बैठी रही उम्रभर,  

नदी के तटबंधों से भी बंध ना पाई।  


मिला न कोई आलंबन,  

ना बना कोई मनमीत,  

भाव रहित आभासों में घिरी रही,  

बंद पलों की जंजीरों में बंधी रही।  


सिंधु की लहरों में उतरी,  

पर मछली ना बन पाई।  

मन उड़ता रहा गगन में,  

सच्चा मनमीत फिर भी ना पाई।  


झूठे रिश्तों की तरंगों में उलझी,  

सागर तट पर बैठी पगली।

  

जब देखा पानी को प्यासा,  

मन ही मन वह घबराई।

 

अपनी ही आंखों का नीर बहा पगली,

दरिया की प्यास बुझा आई।


उलझी रही पगली झूठे रिश्तों की तरंगों में,

डरते रहे सभी पगली को,  

हाथ पकड़ उठाने से, समझ ना पाई। 

इंसान की फितरत रही है केवल पाने की।


गलती मान ली,  

पर क्या थी गलती?  

यह भी तो उसके समझ ना आई।  


कसमें- वादों का प्रयोजन,  

रहता है कब तक वो क्या जाने ?

खत्म हो जाते हैं क्या ?

रिश्ते-नातों के खत्म हो  जाने पर।  


कैसे और कब खत्म हुए सब रिश्ते?  

यह भेद भी उसके समझ न आई।  


सदियों से जीतते रहे हैं शब्द,  

प्रेम और शब्दों की जंग में।  

यह अकाट्य सत्य है ,  

पर यह सत्य उसकी समझ में न आई।  


जिसे खोज रही थी पगली,  

वह भीतर था, पर देख न पाई।  

जिंदा लाश बनी रही पगली,  

मरने पर अर्थी और कफ़न न पाई।  





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